प्राचीन भारतीय लिपि कार्यशाला का समापन

प्राचीन भारतीय लिपि कार्यशाला का समापन
 
उज्जैन 09 जनवरी। महाराजा विक्रमादित्य शोधपीठ के निदेशक डॉ.प्रकाशेन्द्र माथुर द्वारा जानकारी दी गई कि गुरूवार को प्राचीन भारतीय लिपि कार्यशाला का समापन हुआ इस अवसर पर मुख्य अतिथि विक्रमादित्य शोधपीठ के पूर्व निदेशक डॉ.भगवतीलाल राजपुरोहित थे। स्वर और व्यंजन पर चर्चा करते हुए डॉ.राजपुरोहित ने अपने उद्बोधन में कहा कि गाय, कोयल, कौआ आदि जानवर जिस भाषा में बोलते हैं, वह व्यंजन होते हैं। वराहमिहिर ने अपने ग्रंथों में स्वर और व्यंजन का विशेष महत्व बताया है। पहले ध्वनि होती है, उसे तोड़कर ध्वनि से व्यंजन बना और व्यंजन से भाषा बनी।
 डॉ.हेमन्तलाल शर्मा ने अपने उद्बोधन में कहा कि वेद में कुछ ऐसे श्लोक भी मिलते हैं जो ब्राह्मी लिपि में लिखे हैं और इसी क्रम में संस्कृत में ‘अ’ तीन प्रकार के होते हैं और वेदों में ‘अ’ आठ प्रकार के होते हैं।
 डॉ.आरसी ठाकुर ने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि ब्राह्मी देवनागरी, खरोष्ठी और यूनानी आदि भाषा में लेख मिलते हैं और नैनीताल में स्थित नैनादेवी मन्दिर में जो सिक्के कनिष्क के प्राप्त होते हैं, उन पर ये लिपियां अंकित हैं। कार्यक्रम का संचालन डॉ.मुकेश शाह ने किया और आभार प्रदर्शन डॉ.प्रकाशचन्द्र माथुर ने किया। इस दौरान डॉ.राकेश ढंड, डॉ.रमण सोलंकी, डॉ.किरण शर्मा, डॉ.अंजनासिंह गौर और डॉ.राजेश मीणा उपस्थित थे।