मारिशस की डॉ. अंजलि चिंतामणि ने किया अक्षरवार्ता के विशेषांक का लोकार्पण , डॉ. मोहन बैरागी के गीत संग्रह मन बैरागी किया अतिथियों को भेंट।

मारिशस की डॉ. अंजलि चिंतामणि ने किया अक्षरवार्ता के विशेषांक का लोकार्पण

डॉ. मोहन बैरागी के गीत संग्रह मन बैरागी किया अतिथियों को भेंट।

केन्द्रिय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली के डॉ. दीपक पाण्डेय, डॉ. नुतन पाण्डेय ने की अक्षरवार्ता की प्रसंशा

उज्जैन। महात्मा गांधी संस्थान, मारिशस से पधारी डॉ. अजंलि चिंतामणि ने विक्रम विश्वविद्यालय की हिन्दी अध्ययनशाला में आयोजित अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में अक्षरवार्ता के विशेषांक का लोकार्पण किया। इस अवसर पर केन्द्रिय हिन्दी निदेशालय, नई दिल्ली के सहायक निदेशक डॉ. दीपक पाण्डेय, डॉ. नुतन पाण्डेय व महात्मागांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा के पुर्व रजिस्ट्रार डॉ. राजेन्द्र प्रसाद मिश्र उपस्थित थे। 

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी, शोध तथा प्रकाशन व अक्षरवार्ता के विस्तार को लेकर अतिथियों ने प्रसंशा करते हुए कहा कि अक्षरवार्ता ने अल्प समय में ही स्तरीय शोध पत्रिकाओं में अपना स्थान बनाया है। 


साथ ही हिंदी भाषा व देशांतर साहित्य पर बात करते हुए डॉ अंजलि चिंतामणि, मॉरीशस ने संगोष्ठी में कहा कि मॉरीशस में भारत के संस्कार आज भी जीवित हैं, जो प्रवासी साहित्य में एक विशेषता के रूप में उतरे हैं। एक साथ सबको लेकर चलने और सुख-दुख में सबका साथ देने की भावना, वहां आज भी विद्यमान है। अभिमन्यु अनत का उपन्यास हम प्रवासी और अन्य रचनाओं में मॉरीशस के कठिन दौर का जीवंत चित्रण मिलता है। हिंदी को दुनिया की उन भाषाओं से ऊंचा स्थान मिलना चाहिए, जिसकी वह अधिकारिणी है। भारत सरकार ने मॉरीशस के विद्यार्थियों को टैबलेट्स उपलब्ध करवाए हैं, जिनके माध्यम से वे तकनीकी का ज्ञान अर्जित करने के साथ हिंदी के प्रयोग में भी दक्ष हो रहे हैं। भारतवंशियों के अपार त्याग और संघर्ष के कारण आज पूरी दुनिया में मॉरीशस की प्रतिष्ठा बनी है।

डॉ दीपक कुमार पाण्डेय, नई दिल्ली ने कहा कि प्रवासी साहित्य अत्यंत समृद्ध है। वर्तमान में गिरमिटिया देशों के अलावा विश्व के कोने कोने में प्रवासी साहित्य लिखा जा रहा है। प्रवासियों द्वारा रचित एक सौ अस्सी से अधिक उपन्यास आ चुके हैं। उन्होंने त्रिनिदाद और गयाना में शर्तबंदी प्रथा के तहत वहाँ ले जाए गए लोगों की चर्चा करते हुए कहा कि आज भी उनके मन में भारत और हिंदी के प्रति गहरा अनुराग है। कबीर की साखियों का उनके जीवन पर गहरा असर है। होली और दिवाली उनके लिए अत्यंत पवित्र त्यौहार हैं। भारतीय परंपराओं को आज भी उन्होंने जीवित रखा है। प्रवासी लेखकों के संवाद से नए तथ्य सामने आ रहे हैं।

डॉ नूतन पाण्डेय,  नई दिल्ली ने कहा कि मॉरीशस में बसे भारतवंशियों ने गांधीजी के तीन वाक्यों को अंगीकार करते हुए व्यापक प्रगति की है। उन्होंने कहा था कि स्वयं और अन्य लोगों को शिक्षित करो, राजनीति में जाओ और कभी अपने को हीन मत समझो। प्रवासी भारतीय सही अर्थों में भारत के सांस्कृतिक राजदूत हैं, जो यहां की संस्कृति को दुनिया के अलग-अलग हिस्सों तक पहुंचा रहे हैं। 

कुलानुशासक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि प्रवासी साहित्य नए दौर का साहित्यिक विमर्श है, किंतु इसके बीज दशकों पहले महात्मा गांधी और प्रेमचंद के लेखन में दिखाई देते हैं। प्रवासी साहित्य आज एक बहु लोकप्रिय और सर्वस्वीकार्य अवधारणा बन चुकी है। विक्रम विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में प्रवासी साहित्य को जोड़ा जाएगा। दुनिया के विभिन्न भागों में बसे सा?े तीन करोड़ से अधिक  भारतवंशियों ने तमाम प्रकार के कष्टों और संघर्षों के बावजूद अपनी जिजीविषा और कर्मठता को बरकरार रखा और आज वे अनेक माध्यमों से दुनिया को सँवार रहे हैं। प्रवासी साहित्य को भारतीय संस्कृति और अस्मिता के साथ जो?कर देखने के साथ उनके बीच मौजूद जैविक रिश्ते को और सुदृ? बनाने की जरूरत है। 

डॉ राजेंद्र प्रसाद मिश्र, नई दिल्ली ने कहा कि युवा पीढ़ी को प्रवासी साहित्य को पढऩे की आदत डालनी चाहिए। उन्होंने सीताकांत महापात्र की कविता का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया।

प्रो गीता नायक ने कहा कि भारतीय संस्कृति की विशेषता है कि वह कभी मिटती नहीं है उसमें लचीलापन और विविधता है। प्रवासी भारतीय कभी भारत की संस्कृति से दूर नहीं होते। वह उन्हें बार-बार बुलाती है।

डॉ जगदीश चंद्र शर्मा ने कहा कि प्रवासी साहित्य हिंदी की सृजनात्मकता का बृहद् आयाम है, जिसमें विदेशों में बसे  भारतवंशियों के सुख-दुख, तनाव और संघर्ष के साथ मातृभूमि के प्रति अपनत्व की अभिव्यक्ति मिलती है। उनके साहित्य में अपनी पहचान को बनाए रखने जैसी अनेक भावनाओं की प्रामाणिक अभिव्यक्ति हुई है।

कार्यक्रम में साहित्यकार श्री संतोष सुपेकर, डॉ सुशील शर्मा, डॉ अजय शर्मा, कोमल    वाधवानी प्रेरणा, नरेश सोनी, श्रीमती आशा गंगा शिरढोणकर, डॉ भेरूलाल मालवीय, श्रीमती हीना तिवारी, मोरेश्वर उलारे आदि सहित अनेक शिक्षक, साहित्यकार, शोधार्थी और विद्यार्थी उपस्थित थे। 

संगोष्ठी का संचालन डॉ जगदीश चंद्र शर्मा ने किया। आभार प्रदर्शन प्रो गीता नायक ने किया।